वैश्विक संकट के माहौल में आदिवासियों का नजरिया नई राह दिखा सकता है, उनकी आवाज सुनी जाए

“हम तो कहीं दूसरी जगह रह सकते हैं, पर तेंदुआ कहां जाएगा?” यह साधारण सा दिखने वाला सवाल प्रकाश भोइर ने जब पूछा तो सभा में माहौल गरमा गया.

प्रकाश, पश्चिमी भारत के वारली आदिवासी हैं. वे गायक और चित्रकार भी हैं और मुंबई के किनारे मेट्रो रेल के लिए जंगल कटाई के खिलाफ लड़ाई में सक्रिय हैं. महाराष्ट्र सरकार बेहतर सार्वजनिक परिवहन के नाम पर इस परियोजना (जिसमें मेट्रो गाड़ियों के लिये शेड बनाये जाएंगे, वन भूमि पर) को न्यायसंगत ठहरा रही है, उसका मानना है कि 2 करोड़ महानगरीय लोगों को इससे फायदा होगा. लेकिन आदिवासी समुदाय, पर्यावरणविद और मानव अधिकार कार्यकर्ताओं ने इस पर सवाल उठाए हैं. उनका कहना है कि यह ऊष्णकटिबंधीय जंगल आदिवासियों का घर भी है.

सरकार की सोच में यह विकास का हिस्सा है, जिसमें पारिस्थितिकीय (इकोलॉजी) और सामाजिक मुद्दों का बहुत कम ख्याल रखा जाता है और आदिवासियों की आदिम जीवन शैली की भी इसमें बहुत कम जगह है. वनों में रहने वाले समुदायों की उस जीवन शैली को यह परियोजना खत्म करेगी, जो मुंबई की बहुत संसाधनों को गटकने वाली जीवन पद्धति की अपेक्षा टिकाऊ है. यहां बहुत से वन्य जीव भी रहते हैं.

प्रकाश भोइर, ‘आदिवासी व अन्य सामुदायिक दृष्टिकोण विकल्प संगम’ में बोल रहे थे. इस संगम में आदिवासी, पशुपालक, किसान, अन्य समुदाय और नागरिक समाज संस्थाएं हिस्सा ले रही थीं. यह संगम 6 से 8 नवंबर, 2022 को आयोजित हुआ था. इसकी मेजबानी आंध्र प्रदेश में टिंबकटू कलेक्टिव संस्था ने की थी, जिसने राज्य के 300 गांवों में बराबरी और आजीविका व पर्यावरण के टिकाऊपन को बढ़ावा देने की पहल की है.

इस संगम को कल्पवृक्ष और इनर क्लाइमेट एकेडमी ने एक राष्ट्रीय सहायक जुट के साथ आयोजित किया था. इस संगम में देशभर के समुदायों की विविध तरह से रहने, जीने और जानने की पद्धतियों को सामने लाने पर जोर था. इनके बीच आपसी सहयोग और उन्हें सक्षम बनाने की समझदारी की कोशिश करना था. इसमें 30 प्रतिभागी थे, जिनमें आदिवासी समुदाय जैसे वारली, मिशमी, दीमासा, गोंड, सोलिगा, चखासांग, ओरांव, मीणा, और लेपचा, पशुपालक मालधारी और वन गुज्जर और तेलंगाना की दलित महिलाएं शामिल थीं.

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