दिल्ली का ‘मजनू का टीला’ अब एक भीड़भाड़ वाला मॉल बन गया है, लेकिन अपनी ‘तिब्बती आत्मा’ को खो रहा है

नई दिल्ली के मजनू का टीला को एक नया रूप मिला है या यह कहा जा सकता है कि यह अपने वास्तविक अस्तित्व को खो रहा है. हालांकि यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि आप इसे कैसे परिभाषित करते हैं. दशकों तक, यह जगह हिप्पी और पर्यटकों के लिए हैंगआउट करने की जगह थी, जिसमें पॉप बौद्ध ग्रंज के गुच्छे परोसे जाते थे. लेकिय आज यह पूरी तरह से सभ्य स्थान बन गया है. निर्माण स्टेरॉयड पर है.

वीकेंड के दिन मजनू का टीला लगभग एक भीड़ भरे मॉल में चलने जैसा लगता है.

अंतरराष्ट्रीय और रणनीतिक अध्ययन विशेषज्ञ उलूपी बोरा कहती हैं, ‘एक दशक पहले, एमकेटी (मजनू का टीला) कहीं अधिक शांतिपूर्ण जगह थी. यह एक छिपे हुए खजाने की तरह महसूस होता था जिसके बारे में बहुत लोग नहीं जानते थे. लेकिन अब हम देखते हैं कि यह स्थान केवल तिब्बतियों या पूर्वोत्तर के लोगों से ही नहीं बल्कि सभी प्रकार के लोगों से भरा हुआ है. पहले यह काफी सिमटा हुआ था लेकिन अब यह पर्यटन का केंद्र बन गया है.’ उलूपी बोरा 2000 के दशक के अंत में अपने कॉलेज के दिनों में इस जगह से परिचित हुईं थी.

मजनू का टीला, बोलचाल की भाषा में एमकेटी या एमटी के रूप में जाना जाता है, जो उत्तरी दिल्ली में एक छोटी सी जगह है. इस छोटी सी जगह, जिसे 1960 के दशक की शुरुआत में अरुणाचल प्रदेश के रास्ते तिब्बत से आने वाले तिब्बती शरणार्थियों को आवंटित किया गया था. आज, यह ऊंची इमारतों से भरा हुआ है, जो एक दूसरे के बगल में खड़े हुए हैं. इलाके में कई और नए निर्माण हो रहे हैं जिससे पता चलता है कि कुछ महीनों में और नए रेस्तरां, कैफे, गेस्ट हाउस या नई दुकानें खुलेंगी.

इस इलाके के आस-पास के बाजार इसी तरह की इमारतें, फैंसी दुकाने और अलग तरह के भोजनालय बनाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. जबकि एमटी अपने पड़ोसियों की तुलना में काफी अधिक विकसित है और अपनी सफलता पर इतराता है. हालांकि एक व्यावसायिक केंद्र में इसका परिवर्तन एक पुरानी कहानी है जो दो दशकों से थोड़ा अधिक समय से चल रही है. लेकिन इन सब के पीछे कई कहानियां है जो मूल निवासियों से हड़पा जा रहा है. हालांकि एमटी तिब्बतियों के लिए था और अब भी है.

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